Tuesday, November 8, 2022

Patanpole ka mathuradeesh ji ka Mandir Kota.

 हाड़ोती संस्कृति ..............




सात पीठों में प्रथम पीठ, पाटनपोल का मथुराधीश जी मंदिर.....कोटा......

** वल्लभ संप्रदाय के सात उपपीठों में कोटा के मथुरेश जी का प्रथम स्थान है। कोटा के पाटनपोल में भगवान मथुराधीश जी का मंदिर  वैष्णव मतावलंबियों का प्रमुख तीर्थ है।मंदिर में गौशाला, बगीचा, कचहरी डोल तिबारी है, तो निज तिबारी और निज मंदिर के साथ ही कीर्तन तिबारी भी है, जिसमें अलग-अलग अनुष्ठान होते हैं। इस बड़ी प्राचीन हवेली में विशाल कमल चौंक किसी बड़े आयोजन में एकत्र जनसमुदाय को भी आसानी से समेट लेता है। सिंहपोल तथा हथियापोल भी दर्शनीय है। सिंहपोल पर जहां शेर बने हैं, वही हथियापोल में गज स्थापित हैं। मुख्यद्वार पर तीन सीढियां-राजस, तामस और सात्विक भावों का प्रतीक हैं। 

** इसी तरह मंदिर के विभिन्न हिस्सों में बने दरवाजों को पार कर मुख्य देवालय में पहुंचा जाता है। पूरे मंदिर का स्थापत्य वही हैं, जो नंदराय के घर का है, जिसे आज भी नंदग्राम और बरसाने में सुरक्षित रखा गया है।नाथद्वारा की तरह यह भी हवेली मंदिर है।

** मंदिर में अन्य वैष्णव मंदिरों की तरह तड़के मंगल भोग कुछ समय बाद श्रृंगार, फिर ग्वाल तथा उसके उपरान्त प्रातः की अन्तिम सबसे सुन्दर और ज्यादा लम्बी चलने वाली झांकी के दर्शन होते हैं। अपरान्ह 3 बजे बाद उत्थापन के दर्शन सायंकालीन दर्शनों की पहली झांकी होती है। इसके बाद भोग शाम के दूसरे दर्शन की संध्या आरती शाम की तीसरी झांकी होती है। शयन अन्तिम दर्शन होते हैं, जो काफी समय चलते हैं। मंगल भोग में दूध, मक्खन आदि का भोग लगाया जाता है। श्रृंगार के समय प्रभु को बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सजाया जाता है। उत्थापन के समय प्रभु को जगाने के लिए शंखनाद होता है। भोग में विभिन्न फलों व उच्चकोटि के प्रसाद का भोग लगाया जाता है। संध्या आरती का महत्व राजभोग के समान ही है। शयन के समय आरती होती है तथा सेवा भी ली जाती है।

** मंदिर में वर्ष भर चलने वाली इन सेवाओं के अतिरिक्त आधा दर्जन विशेष समारोह भी होते हैं। कोटा में भगवान मथुरेशजी के दिव्य विग्रह के विराजने से सम्पूर्ण भारत में कोटा दूसरे नन्दग्राम के नाम से विख्यात था। 

**  मंदिर की पृष्ठभूमि की प्राप्त जानकारी के मुताबिक श्री मथुराधीश प्रभु का प्राकट्य मथुरा जिले के ग्राम करणावल में फाल्गुन शुक्ल एकादशी संवत 1559 विक्रमी के दिन संध्या के समय हुआ था। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी यमुना नदी के किनारे उस दिन संध्या समय संध्योवासन कर रहे थे तभी यमुना का एक किनारा टूटा और उसमें से सात ताड़ के वृक्षों की लम्बाई का एक चतुर्भुज स्वरुप प्रकट हुआ। 

** महाप्रभु जी ने उस स्वरुप के दर्शन कर विनती की कि इतने बड़े स्वरुप की सेवा कैसे होगी, इतने में 27 अंगुल मात्र के होकर श्री महाप्रभु, वल्लभाचार्य जी की गोद में विराज गये। इसके पश्चात् महाप्रभु जी के उस स्वरुप को वल्लभाचार्य जी ने एक शिष्य श्री पद्यनाभ दास जी को सेवा करने हेतु दे दिया।

** कुछ वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् वृद्धावस्था होने के कारण श्री मथुराधीश जी को महाप्रभु जी के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ जी को पधरा दिया | श्री विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे | उनमें ज्येष्ठ पुत्र श्री गिरधर जी को श्री मथुराधीश प्रभु को बंटवारे में दे दिया।

** संवत 1795 में कोटा के महाराज दुर्जनशाल जी ने प्रभु को कोटा पधराया, कोटा नगर में पाटन पोल द्वार के पास प्रभु का रथ रुक गया तो तत्कालीन आचार्य गोस्वामी श्री गोपीनाथ जी ने आज्ञा दी कि प्रभु की यहीं विराजने की इच्छा है । तब कोटा राज्य के दीवान द्वारकादास जी ने अपनी हवेली को गोस्वामी जी के सुपुर्द कर दी। गोस्वामी जी ने उसी हवेली में कुछ फेर बदल कराकर प्रभु को विराजमान किया तब से अभी तक इसी हवेली में विराजमान है। - डॉ.प्रभात कुमार सिंघल।

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